उत्तराखण्ड की आपदा तथा स्थानीय समुदाय
16 तथा 17 जून को अतिवृष्टि के कारण आयी बाढ़ और उससे उत्पन्न भू स्खलन तथा भूमि कटाव ने उतराखण्ड के उच्च तथा मध्य हिमालय क्षेत्रों में भयंकर तबाही मचाई। इस आघोषित आपदा ने चार धाम की यात्रा पर आये हजारों तीर्थ यात्रियों की जान-माल की छति के साथ साथ स्थानीय समुदाय के लिए भी बड़े पैमाने पर समस्याओं का अंबार खड़ा कर दिया है। विभिन्न सूचना तन्त्रों के माध्यम से तीर्थ यात्रियों तथा तीर्थ स्थलों और यात्रा मार्गों पर फसे स्थानीय निवासियों की मृत्यु, बचाव तथा राहत की सूचना तो पिछले 20 दिन से लोगो तक पहुँच रही है परन्तु सड़को के टूटने, संचार प्रणाली के ठप्प होने तथा आवागमन के साधनों की अनुपलब्धता के कारण, अलग-थलग पड़ गये गावों की जानकारी अत्यन्त सिमित मात्रा में प्राप्त हो पा रही है।
उत्तराखण्ड के 15760 आबाद गावो में से 14000 पर्वतीय क्षेत्रों में हैं तथा इनमे से लगभग 5000 गाँव वर्तमान त्रासदी से सबसे अधिक प्रभावित उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथोरागढ़ तथा बागेश्वर जनपदों में हैं। 31 जुन के सरकारी दावों के अनुसार उत्तराखण्ड आपदा में 2500 गाँवों को क्षति पहुँची जिनमे से 1500 से संपर्क बहाल नहीं हो पाया है। 151 गाँवों में पैमाने पर क्षति हुई है, लगभग 2500 मकान पूर्ण/आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हैं तथा 1840 मार्ग तीन जिलों में टूटे है (अमर उजाला समाचार पत्र,1 जुलाई 2013)। विभीन्न सरकारी विभागों द्वारा दी गई सूचना के अनुसार 6 जुलाई तक 1365 गाँव संपर्क मार्गों से कटे हुए थे तथा 361 गाँवों के 3300 से अघिक परिवार आपदा से प्रभावित हुए। राज्य सरकार द्वारा दी गई उपरोक्त जानकारी वास्तव में सम्पूर्ण क्षति का आंशिक आंकलन है परन्तु यह उत्तराखण्ड में आयी आपदा का स्थानीय जन-जीवन, जीवन-यापन तथा आर्थिक स्थिति पर पड़ने वाले तात्कालिक और दूर गामी प्रभावों को समझने के लिए एक आधार तो प्रदान करती ही है।
उत्तराखण्ड राज्य की लगभग 78 प्रतिशत जनसंख्या जीवन-यापन के लिए कृषि पर निर्भर है तथा यह निर्भरता पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक है। परन्तु कृषि के लिए उपलब्ध सीमित भूमि तथा कम उत्पादकता वाली कृषि के कारण, राज्य के सकल घरेलू उत्पादन में कृषि का योगदान मात्र 16 प्रतिशत है। आपदाग्रस्त उपरोक्त जनपदों में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में से केवल 10 प्रतिशत भाग पर कृषि की जाती है क्यूंकि इन सभी जनपदों में वन क्षेत्र ही 65 प्रतिशत से अधिक है तथा कृषि योग्य और अन्य बेकार भूमि 13 प्रतिशत से अधिक है। यधपि पर्वतीय जनपदों में कृषि उत्पादन पुरे वर्ष के लिए खाने योग्य भोजन भी पैदा नहीं कर पाता परन्तु प्रभावित जनपदों में मुख्य कर्मकरो में 36 प्रतिशत से 63 प्रतिशत कर्मकर कृषकों की श्रेणी में आते है। इस विवरण से यह स्पष्ट है कि कृषि पर्वतीय जनपदों की आर्थिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार है और वर्तमान आपदा में स्थानीय समुदाय का यह आधार व्यापक रूप से क्षतिग्रस्त हुआ है। इस क्षति का अनुमान लगाने के लिए यहाँ की कृषि के स्वरूप को समझना आवश्यक है।
उत्तराखण्ड के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की भाँति ही आपदा से सर्वाधिक प्रभावित जनपदों में कृषि और पशुपालन कार्य नदियों के किनारे तथा पहाड़ी ढालो पर उपलब्ध भूमि पर किया जाता है। वर्तमान आपदा क्यूंकि मुख्य रूप से नदियों में बाढ़ तथा ढालों पर भू स्खलन के रूप में आयी है अतः इसका प्रभाव नदियों के किनारे सिमित सिंचित कृषि भूमि (जिसे क्यारी क्षेत्र कहा जाता है) और ढालो पर बनाये गए सीढ़ीदार खेतों पर व्यापक रूप से हुआ है। समाचार पत्रों, टेलीविजन चैनलों और व्यक्तिगत वर्णनों के आधार पर यह जानकारी मिल रही है की मन्दाकिनी, भागीरथी, अलकनंदा तथा पिंडर नदी की घाटियों और पिथोरागढ़ के उत्तरी भागों में कृषि योग्य भूमि, भवनों तथा कृषि पशुघन को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। 5 जुलाई तक उपलब्ध अत्यंत सिमित सूचना के अनुसार सवार्धिक प्रभावित जनपदों में 400 हेक्टैर कृषि भूमि का कटाव हुआ है तथा 870 हेक्टैर कृषि क्षेत्र में मलबा आ गया है। पर्वतीय कृषक आर्थिक रूप से इरने समृद्ध नहीं है कि वे संचित धन से इस क्षति की भरपायी कर सके। साथ ही विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण खेतो का पुनर्निर्माण एक 'हिमालय चुनौती' है।
आपदाग्रस्त क्षेत्रों, विशेष रूप से भागीरथी, मन्दाकिनी तथा अलकनंदा घाटियों में रहने वाले ग्रामीण समुदाय की आर्थिक स्थिति में क्रमशः गंगोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ धाम की वार्षिक यात्रा का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। स्थानीय समुदाय विशेष रूप से नौजवान परिवहन व्यवस्था (चालक, परिचालक, वाहन स्वामी) दुकान व ढाबों होटल, खच्चर व कंडी संचालन आदि के माध्यम से अपनी वार्षिक आय का एक बड़ा भाग ग्रीष्मकालीन चार धाम यात्रा के द्वारा अर्जित करते है। यही नहीं, धार्मिक स्थानों में कार्यरत पंडे या पुजारी तथा बड़ी संख्या में स्कूल कोलेज जाने वाले विधार्थी भी यात्रा काल के दौरान साल भर के लिए अपनी फीस, पुस्तको तथा कपड़ो आदि की व्यवस्था कर लेते है। जून 16 /17 की त्रासदी ने इन सभी वर्गों की न केवल इस वर्ष की आय को समाप्त कर दिया है अपितु आने वाले कुछ वर्षों के लिए पर्यटन व धार्मिक यात्रा से होने वाली आमदनी पर भी प्रशन चिन्ह लगा दिया है। गाड़ियाँ, होटल, दुकान तथा खच्चर इत्यादि चलाने वाले अनेक लोग यात्रा से पहले उधार लेकर इनकी व्यवस्था करते थे तथा यात्रा के समय आमदनी करके उधार वापिस करने के साथ बचत भी कर लिया करते थे, जो अब असम्भव है। इसी प्रकार बड़ी संख्या में विधार्थी इस पर्यटन को आय के महत्वपूर्ण स्त्रोत के रूप में देखते हैं। यात्रा-काल में न केवल स्थानीय निवासी बल्कि गढ़वाल के अन्य जिलों से भी लोग रोजगार के लिए यात्रा मार्गों के विभिन्न पड़ावों पर आ जाते है। घोडे-खच्चर आदि के रोजगार से जुड़े बहुत लोग तो उत्तर प्रदेश के मैदानी जनपदों, विशेषकर बिजनोर से केदारनाथ तथा हेमकुंड मार्गों पर अपनी सेवाएं देने आते है। इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि बड़ी संख्या में मारे गये व्यक्तियों के अतिरिक्त स्थानीय तथा क्षेत्रीय आर्थिकी पर इस त्रासदी का व्यापक प्रभाव देखने को मिलेगा। इस सन्दर्भ में एक अन्य महत्वपूर्ण दुखद तथ्य यह भी है की स्थानीय मृतको में मुख्यः पुरुष हैं जिसके कारण बड़ी संख्या में परिवारों के मुखिया तथा कार्यरत नौजवानो के न रहने से, पहले से ही कृषि तथा अन्य घरेलू उत्तरदायित्व संभालने वाली महिलाओं पर और अधिक बोझ व जिम्मेदारी बढ़ गई है।
पीएचडी चेम्बर्स के सर्वे के अनुसार उत्तराखण्ड में पर्यटन से वर्ष 2013-2014 के लिए 25000 करोड़ रुपये प्राप्त होने का अनुमान था जिसमें से लगभग 50 प्रतिशत अकेले चारधाम यात्रा का हिस्सा है। समाचार पत्रों के अनुसार इस वर्ष अभी तक मात्र 4000 करोड़ की आय हो पायी होगी। चारधाम यात्रा के बंद होने का प्रभाव हरिद्वार, ऋषिकेश, देहरादून तथा मसूरी आदि शहरों पर भी पड़ा है जहाँ बहुत कम संख्या में पर्यटक आ रहे हैं और वहाँ पर भी पर्वतीय क्षेत्र के निवासी बड़ी संख्या में कार्यरत है। वर्तमान उत्तरखण्ड आपदा ने न केवल तात्कालिक तौर पर खेत और पर्यटन से जुड़े कृषको, व्यवसायियों, स्थानीय कर्मकारों तथा श्रमिकों के जीवन-यापन के साधनों को बुरी तरह क्षति पहुँचायी है, अपितु इस विनाश ने आने वाले समय में पुननिर्माण तथा विकास पर भी बड़े प्रशन चिन्ह लगा दिए हैं। एक ओर जहाँ यात्रा मार्गों, ग्रामीण-नगरीय, आवासों तथा यात्रियों/पर्यटकों के लिए सुविधाओं को बनाने का प्रशन होगा वहीं दूसरी ओर इन क्षेतत्रों में बन रही जल-विद्युत परियोजनाओं पर भी प्रशनचिन्ह लगेंगे। अनियंत्रित निर्माण, सड़क चौडीकरण। नदियों के किनारे बसावट तथा निर्माणाधीन जल-विद्युत योजनाओं को, अतिवृष्टि के साथ, त्रासदी की भयावता के लिए मुख्य माना जा रहा है और यह सत्य भी है। अतः इन सभी विषयों पर गहन अध्ययन, मंथन तथा दीर्घकालिक नीती की आवश्यकता होगी। परन्तु इन सबमें लगने वाले समय तक प्रतिक्षा करने का विकल्प स्थानीय समुदाय के पास नहीं होगा, उनको अपना जीवन चलाने के लिए विभिन्न उपाय खोजने होंगे। इस परिदृश्य में यह संभावना प्रबल है कि स्थानीय लोग, नौजवान और विद्यार्थी व्यस्क रोजगार की तलाश में पलायन का सहारा लें। वैसे भी उत्तराखण्ड बनने के बाद पर्वतीय क्षेत्रो से पलायन बढ़ा है, वर्त्तमान त्रासदी इस प्रवृति को तीव्रता दे सकती है।
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