संस्कृति, सिनेमा और प्रतिरोध के स्वर
जन संस्कृति मंच के फिल्म समूह 'द ग्रुप' के संयोजक संजय जोशी ने न्यूज़क्लिक को उनके फिल्मोत्सव 'प्रतिरोध के सिनेमा' के इतिहास, उद्देश्य एवं आवश्यकता के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि बड़े शहरों में इन्टरनेट और अन्य माध्यमों की उपलब्धता के चलते डोक्युमेंट्री एवं विश्वस्तरीय सिनेमा आदि तक लोगों की पहुँच है और इसीलिए उनका उद्देश्य इस तरह के सिनेमा को छोटे शहरों एवं गांवों तक ले जाना है। जोशी जी ने बताया कि 'प्रतिरोध का सिनेमा' एक परंपरागत फिल्मोत्सव न होकर रंगमंच, गीत, डोक्युमेंट्री आदि माध्यमों के द्वारा देशभर में पर्यावरण, लैंगिक असमानता जैसे विभिन्न मुद्दों पर चल रही बहस के लिए एक सामूहिक मंच है जो आम मुद्दों पर लोगों को जागरूक करते हुए एक दूसरे से जोड़ता है।
Transcript:
शिवेन्द्र वय्यापुरी: न्यूज़क्लिक में आपका स्वागत है आज का विषय है प्रतिरोध का सिनेमा और इस पर बात करने के लिए हमारे साथ हैं जन संस्कृति मंच के फिल्म समूह ' द ग्रुप ' के कन्वीनर मिस्टर संजय जोशी न्यूज़क्लिक में आपका स्वागत है। पहले आप ये बताइए हमें कि प्रतिरोध का सिनेमा क्या है और इसकी शुरुआत कब, कैसे और क्योँ हुई ?
संजय जोशी: 1985 में गोरख पाण्डे के नेतृत्व में जन संस्कृति मंच बना। उससे पहले हिंदी पट्टी में सांस्कृतिक संगठन लेखकोँ के थे दो, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ। ज. स. म. इस मायने में इन दो संगठनोँ से अलग था कि ये न सिर्फ लेखकोँ का संगठन था बल्कि इसमें संस्कृति की जो और विधाएँ थीं चाहे वो संगीत हो चाहे वो नाटक हो या वो फिल्म हो, इन सब को जोड़ा गया था। इसी वजह से इसकी जो पहली एग्जीक्यूटिव थी उसमें गुरुशरण सिंह थे नाटक के क्षेत्र से, भूपेन हजारिका थे गायन के क्षेत्र से और आनंद पटवर्धन थे सिनेमा के क्षेत्र से। जैसी गोरख पाण्डे की कल्पना थी उस तरीके से सिनेमा का एप्लीकेशन जन संस्कृति मंच में हुआ नहीं बहुत। और फिर बहुत बाद में 2006 में जब उत्तर प्रदेश की यूनिट ने अपना काम-काज बढ़ने के हिसाब से सितम्बर 2005 में इलाहाबाद में अपने एग्जिक्यूटिवस की एक मीटिंग बुलाई तो उसमें मुझे भी इनवाइट किया गया था और मैं अपनी कुछ फिल्मे दिखा चूका था, अपनी डोकुमेंटरीज़, तो जो वहां के सेक्रेट्री थे प्रणय कृष्ण उन्होँने कहा कि आप क्या इनपुट देंगे तो मैंने कहा कि हम लोगोँ को एक फिल्म फेस्टिवल शुरू करना चाहिए और सिनेमा को हमें इस्तेमाल करना चाहिए क्योँकि एक ज़माने में प्रोग्रेसिव लोगों ने सिनेमा का अच्छा उसे किया था ख़ास तौर पर इप्टा के ज़माने में। तो उसी मीटिंग में फिर ये भी तय हुआ कि जो हमारा फिल्म फेस्टिवल होगा उसकी ज़रुरत क्योँ है? किस तरह की फ़िल्में होँगी? कैसे जो फिल्म फेस्टिवल चल रहे है उनसे ये अलग होगा ? तो एक तो हम लोगोँ ने ये तय किया कि जो हम अपना फिल्म फेस्टिवल करेंगे उसके सामने हमारे सामने बंगाल और केरल की एक लीगेसी है फिल्म सोसाइटी मूवमेंट की और उसमे भी हाईएस्ट उसका जो एक्सप्रेशन था वो जॉन अब्राहम ने जो ओडीसा फिल्म सोसाइटी बनाई थी और उसमे वो एक एक रुपये का चन्द लेकर जो 'अम्मा अरियन' फिल्म बनाई थी वो हमारे सामने एक आदर्श था कि हम एक ऐसी फिल्म सोसइटी बनायें जो लोगोँ के विषय पे लोगोँ से पैसा करके फिल्म बनाये और लोगों तक दिखाए। ये हमारे दिमाग में एक आईडिया था और दूसरा ये था कि हम डोकुमेंटरी जो फॉर्म है उसको भी जगह देंगे जो कि किन्हीं कारणओं से इसे जगह नहीं मिल रही थी जबकि डोकुमेंटरीज़ में 2006 तक आते आते बहुत सारा इम्पोर्टेन्ट काम शुरू हो गया था। टेक्नोलॉजी सस्ती हो गयी थी बहुत नए तरह का सिनेमा हिन्दुस्तान के अलग अलग हिस्सोँ में बन रहा था। तो इन सब चीजोँ को लेकर हम लोगोँ ने फिल्म फेस्टिवल की स्क्रीनिंग का एक सिलसिला शुरू की सोची और हमने बड़ी लाइन ये खींची बड़ी लकीर हमने ये खींची कि, क्योँकि हमारा ये फेस्टिवल लोगोँ के लिए होगा, लोगोँ की फ़िल्में दिखायेंगे लोगोँ के विषय होँगे, लोग उसमें फोकस में होँगे इसलिए हम इसको लोगोँ के ही सहयोग से डेवेलप करेंगे। और ऐसा करते हुए हम हर तरह की स्पोन्सरशिप का निगेशन करेंगे। वो कोर्पोरेट स्पोन्सरशिप नहीं होगी, वो एन जी ओ स्पोन्सरशिप नहीं होगी और वो गवर्नमेंट स्पोन्सरशिप नहीं होगी। तो जब ये लाइन खींची तो एक हमारे यू.पी. के ही एग्जिक्यूटिव मेम्बर थे आशुतोष कुमार, तो उन्होने कहा कि अच्छा तो फिर इसको नाम हम "प्रतिरोध का सिनेमा" दे सकते हैं। "प्रतिरोध का सिनेमा" हिंदी में और अंग्रेजी में "सिनेमा ऑफ़ रेसिस्टेंस" क्योँकि ऐसा करते हुए हम तमाम तरह के रेसिस्टेंस को हम अपनाएँगे और एक बहुत ही सच्चा मॉडल ये सामने आएगा। तो ये बातें सितम्बर 2005 यू.पी.ज.स.म. की स्टेट एग्जिक्यूटिव मीटिंग में तय हुईं। और एक संयोग के तहत कुछ हमारे दोस्त लोग गोरखपुर में कुछ एक्टिव थे उनसे हमारे स्टेट सेक्रेट्री का परिचय था बातचीत थी तो ये हुआ की भाई कहाँ शुरू करेंगे तो गोरखपुर में शुरू करेंगे बस इतनी बात हुई और फिर 2006 में गोरखपुर में पहला फिल्म फेस्टिवल हमने भगत सिंह की 75 वीँ शहादत के मौके पर 23 मार्च को किया और उसके बाद ये प्रतिरोध के सिनेमा का सिलसिला शुरू हुआ। तो ये इसकी एक भूमिका है।
शिवेन्द्र वय्यापुरी: इस फिल फेस्टिवल का गोरखपुर, नैनीताल, इंदौर, भिलाई, पटना जैसे छोटे शहरोँ से बड़ा गहरा नाता है। इसकी कोई ख़ास वजह?
संजय जोशी: इसकी वजह ये है कि एक तो जो बड़े शहर हैं वहां तो आलरेडी फ़िल्म फेस्टिवल होते हैं, जैसे भी होते हैं वो अलग बात है लेकिन आलरेडी लोगों को फ़िल्म मीडियम का एक्सपोज़र है।बड़े शहरोँ में ही चाहे वो कलकत्ता, हो चाहे वो पूना हो, चाहे वो चेन्नई हो, चाहे वो दिल्ली हो, चाहे वो बोम्बे हो इन तमाम बड़े शहरोँ में फ़िल्म इंस्टीट्यूट्स हैं।मीडिया के बड़े इंस्टीट्यूट्स हैं। तो इसलिए हम लोगोँ ने बहुत कौन्शिअसली ये डिसीज़न लिया कि हम छोटे शहरोँ की तरफ अपनी जर्नी शुरू करेंगे। और हमें लगा कि शायद छोटे शहरोँ में हमारी जर्नी शुरू करने की ज़रुरत भी है, क्योँकि वहां पर लोगोँ को ये जो नया मीडिया है वहां तक पहुँच नहीं रहा है। वहां पर… ये तो तब भी थोड़े बड़े शहर हैं हम तो और छोटे शहरोँ मे, कस्बोँ में, गाँवोँ में जा रहे हैं। आपके पास लाइट नहीं है, लाइट नहीं है इसकी वजह से आपके पास इंटरनेट की फैसिलिटी नहीं है। आपके पास चूँकि इंटरनेट की फैसिलिटी नहीं है तो आप वर्ल्ड सिनेमा डाउनलोड नहीं कर सकते हैं। ये सब चीजें बड़े शहरोँ में थीं। तो बड़े शहरोँ में न सिर्फ़ इंस्टीट्युशंस के ज़रिये, सरकार के ज़रिये फ़िल्म फेस्टिवल्स हो रहे थे बल्कि टेक्नोलॉजी की अवेलेबिलिटी की वजह से लोग इस नए मीडिया को अवेल कर पा रहे थे तो ये एक कारण था की हम छोटे शहरों में करेंगे और अब तो हमने अभी जो हमारा थर्टी फर्स्ट फिल्म फेस्टिवल हुआ है सलेमपुर में, सलेमपुर यू.पी. का एक शहर है देवरिया, देवरिया का एक क़स्बा है, सत्रह हज़ार की आबादी है, हमने वहां फेतिवल किया। और उसके पहले हमने 25 मई को 2013 को उत्तर चौबीस परगना के छोटे से कसबे नैहटी की एक बंद जूट मिल के वहां साथियों के ऑफिस के बाहर किया तो अब तो हम सिनेमा ऑफ़ रेसिस्टेंस को और नीचे तक ले जा राहे हैं क्योँकि लोग तो छोटे शहरोँ में हैं और वहां तक तो कोई मीडिया जा नहीं रहा है।
शिवेन्द्र वय्यापुरी: आप पिछले आठ सालोँ से सिनेमा ऑफ़ रेसिस्टेंस या प्रतिरोध का सिनेमा फ़िल्म फेस्टिवल को अलग अलग जगहोँ तक पहुंचा रहे हैं,प्रतिरोध का सिनेमा और खास तौर पर डोकुमेंटरी फ़िलम्स को लेकर लोगोँ की जो सोच है उसमें क्या बदलाव आया है?
संजय जोशी: देखिये एक तो ये है कि ये जानना चाहिए, समझना चाहिए कि ये जो सिनेमा ऑफ़ रेसिस्टेंस इनिशिएटिव है, वो सिर्फ सिनेमा का इनिशिएटिव नहीं है, सिनेमा इसमें एक मेजर फॉर्म की तरह एक्ट करता है। ठीक है। हम लोगोँ ने अपने पहले फ़िल्म फेस्टिवल से ही फ़िल्म फेस्टिवल को एक जो नार्मल परसेप्शन था फ़ेल्म फेस्टिवल के बारे में फ़िल्म एप्रिशिएशन का उससे हटा के हमने एक तो इसे इंटरेक्टिव बनाया और हमने दूसरे आर्ट फॉर्म को जोड़ा।क्योँकि सिनेमा भी जो अपने आप में है वो कोई नया आर्ट फॉर्म नहीं है, वो तमाम आर्ट फॉर्म्स का एक कोहेसिव प्लेटफॉर्म है। और दूसरी बात ये है की जो हमारे फेस्टिवल हैं वो एक तरह से फ़िल्म फेस्टिवल भी नहीं हैं वो एक तरह से डिफरेंट वॉइसेस के प्लेटफॉर्म हैं।
बेसिकली हम क्या कर रहे हैं हम सिनेमा के माध्यम से और सिनेमा में भी जो डोकुमेंटरी फॉर्म है उसके माध्यम से जो देश में विभिन्न विषयोँ पर, राजनैतिक, सामजिक, आर्थिक मुद्दोँ पर, पर्यावरण के मुद्दे पर, महिलाओं के मुद्दे पर, जेंडर के मुद्दे पर जो बहसें चल रहीं हैं उन बहसों को हम डोकुमेंटरी फिल्मोँ के माध्यम से दिखा रहे हैं। एक बात, दुसरी बात ये है की अगर हम खाली नए दर्शकोँ को हम डोकुमेंटरी दिखायेंगे तो हो सकता है कि वो बिदक जाएँ क्योँकि सिनेमा एक इंटरेस्टिंग आर्ट फॉर्म है तो उसके लिए हम क्या करते हैं की हम फ़ीचर फ़िल्मोँ का भी चुनाव करते हैं। फिर ये है की बहुत साड़ी चीज़ें शॉर्ट फ़िल्मोँ में भी हैं तो हम शॉर्ट फ़िल्में भी रखते हैं, हम थिएटर के भी प्रज़ेन्टेशन रखते हैं, हम मम्यूज़िक के प्रज़ेन्टेशन भी रखते हैं और दूसरा ये हमने कॉनशसली किया है कि जो हमारे हिन्दुस्तान में जो बौलीवुड ने काम किय। बौलीवुड ने क्या किया कि नैरेटिव फॉर्म को एक बहुत डोमिनेंट फॉर्म बनाया तो लगातार हम ये कोशिश करते हैं तोड़ने की कि भाई अलग फॉर्म्स को भी देखो। नैरेटिव फॉर्म के डोमिनेंट होने की वजह से क्या हुआ कि डोकुमेंटरी को लोगोँ ने देखा ही नहीं।जो लोग शहरों में भी फिल्मे देखते हैं वो भी डोकुमेंटरी नहीं देखते हैं। गेंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी फ़िल्म लोग देख लेंगे या लव सेक्स और धोखा देख लेंगे लेकिन वो संजय काक की डोकुमेंटरी नहीं देखेंगे आनंद पटवर्धन की डोकुमेंटरी नहीं देखेंगे, उसके लिए कोई प्रयास नहीं करेंगे।
तो ये इस तरह का एक मिक्स काम हुआ और जो आप कह रहे हैं कि लोगोँ की सोच में क्या बदलाव आया उसमें बहुत इंटरेस्टिंग अनुभव हैं जैसे की गोरखपुर में उत्तराखंड से कुछ लोग फिल्म फेस्टिवल देखने आये। उन्होँने के.पी. सरसई की फिल्म देखी "रेसिसटिंग थे कोस्टल इन्वेज़न" जिसका हमने हिंदी अनुवाद किया सागर तट के सौदागर। जब उन्होँने ये फ़िल्म देखि तो उन्होँने कहा कि अरे ये फ़िल्म तो जो है हमारे उत्तराखंड में जो बड़े बाँध बन रहे हैं उनसे भी रिलेट करती है तो जब उन्होँने अपने यहाँ फ़िल्म फेस्टिवल किया तो उन्होँने बड़े बाँध की फ़िल्मोँ को या वैसी फ़िल्मोँ को रखना शुरू किया। या जब हम लोगों ने प्रोड्क्शन की एक्टिविटी शुरू की तो लोगोँ ने कहा कि जो यहाँ की लोकल इश्यू है जैपनीज़ इन्सिफिलाइटिस बीमारी इस पर भी आप फिल्म बनाइये।या फिर अगर हम " गाड़ी लोहड़दगा मेल" फिल्म बनाते हैं, अभी हमने "गाड़ी लोहड़दगा मेल" फिल्म दिखाई सलेमपुर में तो लोगोँ को बरहजिया ट्रेन जो देवरिया में एक जगह बरहज है, बरहज और सालेमपुर के बीच में ठीक वैसी ही एक ट्रेन चलती है। तो लोगों को याद आया हमारी भी तो अपनी एक ट्रेन है। या हमने जब भिलाई में फेस्टिवल किया तो वहां के लोगोँ ने कहा की यहाँ सेनिटेशन वर्कर्स के बीच में हमारा काम है तो आप इस थीम पर कोई फिल्म लाइयेगा तो मैंने फिर अमूधन आर.पी. की फ़िल्म "पी" को क्यूरेट किया। मैंने उसे सिर्फ क्यूरेट ही नहीं किया, मैंने उस का लाइव हिंदी अनुवाद भी किया तो लोग उससे जुड़ पाये। या हमने क्या किया कि पूना के लोग जो हैं जो पूना में सफाई कामगार यूनियन है मुक्ता मनोहर के नेतृत्व में उन लोगोँ ने कचरा व्यूह, गारबेज ट्रेप करके एक फिल्म बनाई। उन लोगों को हमने गोरखपुर बुलाया तो क्या हुआ की गोरखपुर के लोग भी अपने शहर की प्रोब्लम से, अपने सफाई कर्मियों से जुड़ सके। गोरखपुर में जब हमने आफस्पा पे फिल्म दिखाई तो लोग मणिपुर की चीजोँ से जुड़ सके। नैनीताल में हमने कुछ दिखाया तो वहां लोग पंजाब की चीजोँ से जुड़ सके,कश्मीर से जुड़ सके।
जैसे कश्मीर का जो पूरा इशू है, कश्मीर के पूरे इशू को हम लोगों ने बहुत सक्सेसफुली संजय काक की फिल्म "जश्न-ए-आज़ादी" के माध्यम से लोगों तक हम उस बहस को ले गए और मुझे बहुत अच्छी तरह से याद आता है कि सितम्बर 2009 या 2010 में हमने जबलपुर में एक पहल मैगज़ीन निकलती है, उस फल मैगज़ीन के साथ हमने 2 दिन की एक सिनेमा वर्कशॉप की थी। उस सिनेमा वर्कशॉप में हमने 5 सेशन किये थे और उसमे एक सेशन में संजय काक ने सेंसरशिप के बारे में बात की थी और एक सेशन में उनकी फ़िल्म दिखाई गई " जश्न-ए-आज़ादी "।जश्न-ए-आज़ादी देखने के बाद युवाओं का एक बहुत बड़ा ग्रुप था जो हिंदी अखबार पढता था और ज्यादातर हिंदी अख़बार जो हैं वो राईटविंग की बात करते हैं तो कश्मीर के बारे में उनकी अपनी एक धारणा थी और वो बहुत ही वायोलेंट था मगर मैंने देखा कि उस फ़िल्म के बाद डिस्कशन हुआ और डिस्कशन के बाद जब संजय काक को दोबारा कुछ चीजोँ को छूटे हुए सवालोँ को रखने, हिस्ट्री को रखने का जब मौका मिला तो मैंने देखा के बाथरूम में वो लड़के ये कह रहे थे की हमने तो इस तरह की चीजें देखी ही नहीं हैं तो हम क्योँ एक तरह की राय बनाते हैं? तो मुझे लगता है कि ये जो डोकुमेंटरी फॉर्म है वो चूँकि इंडिपेंडेंट है, वो चूँकि कम पैसे में बनता है इसलिए वो कहीं और से नियंत्रित नहीं है, इसलिए वो सच्चाई के ज्यादा क़रीब है। और इसके ज़रिये आप लोगोँ के बीच में अलग-अलग बहसोँ को इंट्रोड्यूस करने का काम करते हैं।उससे ज़्यादा मेरे ख़याल से किसी इनिशिएटिव का और क्या मक़सद हो सकता है।
शिवेन्द्र वय्यापुरी: एक क्यूरेटर के नज़रिए से किसी भी फ़िल्म फेस्टिवल में क्लासिक और कन्टेम्परेरी सिनेमा का एक हेल्दी मिक्स होना कितना ज़रूरी है?
संजय जोशी: दो तरह के क्यूरेटर होते हैं। एक तो क्यूरेटर होता है जो कि फोर्ड फाउंडेशन से पैसा लेकर फेस्टिवल कर रहा है, उसके लिए ये इम्पोर्टेन्ट ही नहीं होता की दर्शक आयें या ना आयें और एक क्यूरेटर होता है जिसकी पूरी टीम जो है वो सौ लोगोँ से,दो सौ लोगोँ से, पांच सौ लोगोँ से चन्दा लेती है। उसके अगर फेस्टिवल में दर्शक नहीं आयें तो वो अफोर्ड नहीं कर सकता। अगर दर्शक नहीं आयेंगे तो क्या होगा के टेंट वाले का किराया कौन देगा? लाऊडस्पीकर का पैसा कहाँ से जाएगा ?
जो नाश्ता कराया है वो कहाँ से जाएगा , मेहमानों का किराया कहाँ से निकलेगा और बहार जो हमने स्टॉल लगाया है उसमे बिक्री नहीं होगी। तो जब आप फेस्टिवल क्युरेट करते हैं तो लोगोँ को दिमाग में रखके लोग आपकी प्रायोरिटी में हैं। बहुत सरे फेस्टिवल्स में लोग आपकी प्रायोरिटी में नहीं होते फ़िल्में भी प्रिओरिटी में नहीं होतीं, कुछ और चीजें प्रायोरिटी में होती हैं। जब आप लोगों को प्रायोरिटी में रखते हैं तब आप ये सोचते हैं कि लोग कैसे रुकेंगे, हॉल के अन्दर कैसे रुकेंगे ? तो इसीलिए जब हॉल के अन्दर रुकने वाली बात आती है तो खाली डोकुमेंटरी दिखने से लोग नहीं रुकेंगे। और दूसरी बात है आप किसी विषय पर बहुत गहन फ़िल्म, बहुत इंटेंस फ़िल्म दिखा रहे हैं तो हम ऐसा करते हैं एक इंटेंस फ़िल्म दिखाते हैं, एक लाइट फ़िल्म दिखाते हैं।एक, एक तरह के जॉनर की फिल्म दिखाई, एक नॉन फ़ीचर फिल्म दिखाई, एक फ़ीचर फिल्म दिखा दी फिर एक म्यूजिक विडियो दिखा दिया।फिर बीच में कोई एक लेक्चर डेमोन्सट्रेशन करा दिया, फिर एक सवाल-जवाब का सेशन करा दिया। तो ये पूरा .. इसलिए मुझे लगता है ये सिर्फ हेल्दी कॉम्बिनेशन नहीं है, ये ओनली कॉम्बिनेशन भी है।ये आपको करना ही पड़ेगा।आप दर्शक को रोकन चाह रहे हैं। दूसरा एक तो ये हैं हम हॉल के अन्दर हम दर्शकों को इस तरीके से रोकते हैं अपनी क्यूरेशन के ज़रिये और हम हॉल के बहार भी लोगोँ को रोकते हैं क्योँकि आप लगातार फ़िल्म तो दिखायेंगे नहीं। एक स्क्रीन आपकी हो रही है तो एक ही आदमी सब फ़िल्में देखेगा, ब्रेक्स होँगे। अब ब्रेक में वो बहर न चला जाए छिटक के, खरीदारी करने न चला जाये। तो बाहर हम स्टॉल्स लगाते हैं, एग्जीबिशंस लगते हैं हम वहां पे वाल्स लगाते हैं और हम लोग उनके पानी का चाय का इन्तज़ाम करते हैं और कोशिश करते हैं की लोग एक जगह पर बातचीत करें, रुके रहें और अगली स्क्रीनिंग में फिर घुसें।
शिवेन्द्र वय्यापुरी: हर किसी फ़िल्म फेस्टिवल में डोकुमेंटरीज़ की स्क्रीनिंग के साथ साथ जो डिस्क्शन्स होते हैं स्क्रीनिंग के बाद, वो कितनी अहमियत रखते हैं?
संजय जोशी: मुझे लगता है सबसे इम्पोर्टेंट वही हैं।आप कोई भी आर्ट फॉर्म, परफ़ॉर्म या स्क्रीन क्योँ करते हो? बेसिकली आप कोई बात कहना छह रहे हैं। आप ने खाली स्क्रीनिंग कर दी , पांच लोग बैठे हैं, फिल्म देखि और घर चले गए।असली जर्नी तो शुरू होती है डिस्कशन में , क्योँकि जो डोकुमेंटरी फ़िल्ममेकर है वो भी कोई पूर्ण सत्य नहीं कह रहा है तो एक तो यह है की उसको भी छूट नहीं मिले कि कुछ भी दिखा के चला जाये और दूसरा ये है कि हर फॉर्म की एक लिमिटेशन होती है,आप चाह कर भी .. एक डोकुमेंटरी की रिसोर्सेज़ की भी लिमिटेशन है, टाइम ड्यूरेशन भी है।फॉर्म की भी लिमिटेशन कि आप बहुत सारी बातें नहीं कह पाते, बहुत सारे कॉन्टेक्स्ट आप छोड़ देते हैं तो उस्लो समझाने के लिए फ़िल्ममेकर होता है।
शिवेन्द्र वय्यापुरी: कभी औडिएन्स के मिसइंटरप्रेटेशन को दूर करने के लिए भी ..
संजय जोशी: बिलकुल और कई बार औडिएन्स भी फ़िल्ममेकर को ठीक करती है। ऐसा भी हुआ है की कई बार औडिएन्स ने भी फ़िल्ममेकर को करेक्ट किया है और उसके डीविएशन को बताया है की आपका यहाँ यहाँ डीविएशन है और आगे आप कौन कौन से डीविएशन करेंगे। तो ये भी होता है। तो मुझे लगता है कि अब हम लोगोँ ने धीरे-धीरे अपने फेस्टिवल्स में फिल्मोँ की संख्या कम कर दी है और इंटरेक्शन का टाइम बाधा दिया है। और हमने फ़िल्मोँ के इंट्रोडक्शन जो हैं, जिन फ़िल्मोँ के फ़िल्ममेकर नहीं आते क्योँ की हम अफोर्ड नहीं कर पाते ज्यादा लोगोँ को,तो हम फ़िल्मोँ का लम्बा इंट्रोडक्शन देते हैं। और अगर इम्पोर्टेंट फ़िल्म है और देख रहे हैं की लोगोँ को अच्छी लगेगी तो कहते हैं की अब इस पर कोई सवाल हो तो इ स पर बातचीत करेंगे। इनफॉर्मल बातचीत, फ़िल्ममेकर नहीं है तो भी हम बातचीत कर सकते हैं। मुझे याद आता है की हमने आनंद पटवर्धन की फ़िल्म दिखाई थी पहले गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल में "वॉर एंड पीस " और हमने चार लोगों का पेनल बनाया था। एक उसमे से शहर के बड़े कवि थे, एक टीचर थे, एक उपन्यासकार थे और एक आदमी कंडक्ट कर रहा था। तो जो कवी थे उन्होँने राष्ट्र के बारे में कुछ बोला, नेशन के बारे में तो एक स्टूडेंट ने कहा की सर में आपसे एग्री नहीं करता हूँ राष्ट्र के बारे में, आप जो ये कह रहे हैं ऐसा नहीं है इस फ़िल्म में , और एसा न तो आनंद पटवर्धन कह रहे हैं, न ऐसा मैं मानता हूँ।तो उनको मानना पड़ा कि हाँ भाई आप सहीं हैं मैं ग़लत।तो ये भी इंटरेस्टिंग है और दुसरी बात है की छोटे शहरोँ में, उत्तर प्रदेश के शहरोँ में, बिहार में, तमाम शहरोँ में एक जो पूरा स्पेस है, वो स्पेस बहुत ही हिरार्किकल है कुछ लोग आते हैं भाषण देते हैं चले जाते हैं। हम लोगों ने ये ब्रेक किया की इंटरेक्शन होना चाहिए। उस पार्टिसिपेशन की वजह से भी लोग हमारे फेस्टिवल से जुड़े।
शिवेन्द्र वय्यापुरी: सर मेरा आपसे आख़िरी सवाल यह है कि ऐसी फ़िल्में और इन फ़िल्मोँ को लोगोँ तक पहुँचाने वाले फ़िल्म फेस्टिवल्स एक प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन के संदर्भ में कितने महत्वपूर्ण हैं?
संजय जोशी : फ़िल्में और फ़िल्म फेस्टिवल और LCD प्रोजेक्टर, छोटे कैमरे और उनसे बनीं चीजें बहुत इमोर्तेंत हैं क्योँ कि जो आपका पोस्ट 90 का कल्चरल सिनेरियो है उसमें क्या है उसमे बिग सिनेमा आरा है उसमे रिलाइंस का सिनेमा आ रहा है, उसमे यू.टी.वी एक बड़ा प्लेयर बन रहा है, उसमें एकता कपूर बालाजी टेलीफ़िल्मस एक बड़ा प्लेयर बन रहा है। जगह जगह बिग कैपिटल मोनोपोलाइज़ कर रहा है चीजोँ को। वो सिर्फ मिनरल्स को, माइन्स को ही मोनोपोलाइज़ नहीं कर रहा है कल्चर को भी मोनोपोलाइज़ कर रहा है। सारे अख़बार एक तरह के हो गए हैं। सारी फ़िल्में एक फ़ॉर्मूले पे बन रहीं हैं। अगर मान लीजिये की आपका माफिया वाला फ़ॉर्मूला हिट होता है तो उसी पे फ़िल्में बन रही हैं। डिस्ट्रीब्युशन जो है .. जो पुराना डिस्ट्रीब्युशन का पैटर्न था वो हट गया है। अब डिस्ट्रीब्यूटर भी वहीँ से डिसाइड हो रहा है। यू.ऍफ़.ओ वगेरह आने से तो और ज़्यादा मोनोपोलाइज़ हो गया है। ऐसे समय में जो अलग तरह के इनिशिएटिव हैं जो अलग तरह की वोइसेज़ को मंच दें वो बहुत इम्पोर्टेंट हैं। और वो इसलिए संभव हुआ क्योँकि टेक्नोलॉजी चेंज हुई है। 90 के बाद कैपिटल मोनोपोलाइज़ भी होता है और टेक्नोलॉजी भी आती है। बड़ी कम्पनियों की ज़रूरत है कि उनके प्रोजेक्टर्स बिकें। लेकिन कल्चरल ऐक्टिविस्ट इसका इस्तमाल करते हैं इस स्पेस को बढ़ाने में।
इस संदर्भ में एक बहुत मज़ेदार इंटरव्यू है।जब 1969 में फेरनान्दो सोलानास की अर्जेंटीनियन डोकुमेंटरी 'Hour of the Furnace' रिलीस हुई तो सोलानास से गोदार्द ने एक रेडियो इंटरव्यू किया। कुछ देर बाद सोलानास ने गोदार्द से पूछा, What about you? Can you manage make films? गोदार्द ने कहा,"फिल्म्स तो मैं नहीं बना पा रहा हूँ लेकिन मैंने इस साल ४ फिल्में बनाई हैं विडियो पर। मैं कैमरा का इस्तमाल उसी तरह करना चाहता हूँ जैसे विएतनामियों ने अम्रीका के खिलाफ़ साइकिल का किया।" तो मुझे लगता है की कैमरे का, LCD प्रोजेक्टर्स का, इन्टरनेट का और तमाम चीज़ों का इस्तमाल हमें क्रांतिकारी तरीकों से करना चाहिए। इसका उदाहरण है ओड़िसा में 'समदृष्टि' ग्रुप। सूर्या शंकर दास हक काम काफ़ी क्रांतिकारी है। चर्च ऑफ़ इंग्लैंड को वेदान्ता से 400-500 करोड़ रुपये वापस लेने पड़े। ये साज़िश है बड़े कैपिटल की कि एक खास तरह की चीज़ें ही देखें लोग। इसी में उनका भला है। उस भलाई को तोड़ने की ज़रूरत है और इसमें टेक्नोलॉजी हमारा साथ दे रही है।
शिवेन्द्र वय्यापुरी: हम चाहते हैं की आपके साथ इन्हीं विषयों पर हमारी बातचीत जारी रहे । न्यूज़क्लिक में आने के लिए शुक्रिया।
संजय जोशी : बहुत बहुत शुक्रिया।
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