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अलविदा खुशवंत सिंह...

अभिनव सब्यसाची

उन दिनों हमारे घर दैनिक हिंदुस्तान आया करता था। जब मैंने अखबार पढ़ना शुरू किया था तब पहली या दूसरी क्लास में था। उन दिनों मैं अखबार में बच्चों के स्तम्भ, कहानियाँ या चुटकुले ही पढ़ा करता था। जब मैं चौथी या पांचवी क्लास में गया तो एक दिन बाबा (पिताजी) ने यूँ ही कहा,'सम्पादकीय पृष्ठ भी पढ़ा करो, कुछ समझ आये या ना आये!' बाबा की बात मान कर जब पहले पहल सम्पादकीय पृष्ठ में छपे लेखों को पढ़ने की कोशिश की तो सच में कुछ समझ नहीं आया।

सारी बातें ऊपर से निकल गयीं। हाँ, शनिवार को छपने वाला एक स्तम्भ रोचक लगा। उसमें हलके-फुल्के अंदाज़ में काफी गम्भीर बातें होती थीं । कभी कबार व्यंग लेखों को पढ़ने के अलावे एक यही स्तम्भ था जिसे मैं नियमित पढ़ने लगा। अब अखबार के बीच का वो बिना चित्रों वाला पृष्ठ रास आने लगा था। वह स्तम्भ खुशवंत सिंह का (अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित) स्तम्भ 'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' था। शुरू-शुरू में तो केवल स्तम्भ के अंत में छपे चुटकुले ही पढता था, फिर धीरे-धीरे सब कुछ पढ़ने लगा।  स्कूल की किताबों के बाहर जो कुछ भी जान रहा था वो या तो टीवी से या फिर अख़बार से। मुझे टीवी से अधिक अखबार ही भाने लगा क्योंकि खुशवंत सिंह के कारण मैं हर हफ्ते कुछ नया जान पा रहा था। राजनीति, धर्म, इतिहास, समाज और साहित्य पर वे बेबाक लिखते थे। उनके स्तम्भ की वजह से इन सभी विषयों पर मेरी प्राथमिक राय बनने लगी। ये वह दौर था जब भाजपा ने राम मंदिर के नाम पर वोट बटोरने का 'आंदोलन' चला रखा था और खुशवंत सिंह साम्प्रदायिक राजनीति के ख़िलाफ़ जम कर लिख रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा और इसका भारत के इतिहास और राजनीति पर पड़ने वाले प्रभाव को मैं इस स्तम्भ के ज़रिये ही स्पष्ट रूप से समझ पाया था। कांग्रेस और गांधी परिवार पर लिखना खुशवंत सिंह को ख़ासा पसंद था। ऐसे में भारत की दो सबसे बड़ी पार्टियों के बारे में काफी सारी बातें मैं जान गया। हिंदी अखबारों में दक्षिण भारत के बारे में बहुत कम ही जानने को मिलता है। पर इस स्तम्भ में खुशवंत सिंह दक्षिण भारत के हर पहलू पर अक्सर लिखा करते थे।

'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' में एक बार जनवरी के आख़री हफ्ते में खुशवंत सिंह ने दिल्ली में गणतंत्र दिवस के परेड में अस्त्रों के प्रदर्शन पर सवाल उठाया था। उनका कहना था कि जहाँ गणतंत्र दिवस के सिर्फ चार दिन बाद हम महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों पर चर्चा करते हैं वहीँ छब्बीस जनवरी को हम युद्ध के हिंसा का प्रदर्शन करते हैं। जब अगले साल स्कूल में गणतंत्र दिवस के अवसर पर हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता में मैंने हिस्सा लिया तो इस बिंदु पर भी बात की। मेरे विरोधी ने राष्ट्रीयता के नाम पर बहस कर प्रतियोगिता जीत ली पर अधिकतर शिक्षकों ने मेरे तर्क को सराहा।

 

Image Courtesy: wikimedia.org

मैं अक्सर किसी विशेष मुद्दे पर खुशवंत सिंह के विचारों को लेकर अपने दोस्तों और जानने वालों से चर्चा किया करता था। एक बार मैंने अपने बड़े चाचा से किसी विषय पर बात करनी चाही तो उन्होंने कहा कि उन्हें खुशवंत सिंह पसंद नहीं। उन्होंने बताया कि किस तरह एक बार खुशवंत सिंह ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक औसत कहानीकार लिखा था। उस वक्त मुझे खुशवंत सिंह की बात कुछ हद तक सही लगी। चूँकि मैं बिहार में पैदा हुआ था और बंगला भाषा ठीक से नहीं जानता था, मैंने रवीन्द्रनाथ की कहानियों का हिंदी अनुवाद ही पढ़ा था और कई सारी कहानियाँ बोझिल लगी थीं। मुझे खुशवंत सिंह की बात का समर्थन करते देख चाचा जी खूब नाराज़ हुए और कहा कि मुझे आगे की पढाई बंगाल में रह कर करनी चाहिए ताकि बंगला संस्कृति और साहित्य के लिए मेरे दिल में सम्मान पैदा हो। साथ में उन्होंने मेरे खुशवंत सिंह को पढ़ने पर भी आपत्ति की। बहुत बाद में मुझे लगा कि मैंने रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का स्तरीय अनुवाद नहीं पढ़ा था। ऐसा खुशवंत सिंह ने भी माना कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर उनकी टिप्पणी अंग्रेज़ी के बेकार अनुवादों के कारण निकली थी। लेकिन बंगाल में खुशवंत सिंह का जिस तरह विरोध हुआ उस पर वो खूब चुटकी लेते थे। इसी बहाने उन्होंने भारतीयों के क्षेत्रवादी मानसिकता पर वार किया था। वो अपने पगड़ी पहनने और दाढ़ी एवं बाल ना कटवाने को धार्मिक दृष्टि से देखने के सख्त ख़िलाफ़ थे। उन्होने इसे अपनी संस्कृति के प्रति अपना सम्मान प्रकट करना भर बताया था।

खुशवंत सिंह साल के अंत में साल भर की बड़ी घटनाओं पर टिप्पणी करते थे। अपनी निजी बातें खुल कर लिखते थे। नेताओं से अपने व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर कई रोचक प्रसंग भी लिखते थे। क़रीब ग्यारह साल की उम्र से अब तक मैंने उन्हें नियमित पढ़ा। कुछ साल बाद मैं इस स्तम्भ को इसकी मूल भाषा अंग्रेजी में पढ़ने लगा। ये स्तम्भ अपने नाम With Malice towards One and All के अनुरूप सदा निडर और बेबाक़ बना रहा। भारतीय समाज और राजनीति करवटें बदलती रहीं और खुशवंत सिंह अपने मन की बात लिखते रहे।

इस स्तम्भ के अलावे भी मैंने खुशवंत सिंह को खूब पढ़ा। बंटवारे के विषय पर अंग्रेज़ी में लिखे उपन्यासों में खुशवंत सिंह का उपन्यास Train to Pakistan एक उल्लेखनीय कृति है। The History of Sikhs और Delhi: A Novel उनकी दो अन्य बेहतरीन कृतियाँ हैं। कुछ एक कहानियाँ भी मुझे पसंद आयीं पर अधिक नहीं।

उनकी कई बातों से मैं असहमत भी हुआ। उनका आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी और संजय गांधी का समर्थन करना या अपनी 'बेस्टसेलिंग' किताबों में औरतों का आपत्तिजनक चित्रण करना, मुझे हमेशा नागवार गुजरा। पर मेरे जीवन में परोक्ष रूप से उनका महत्वपूर्ण योगदान है। आज अगर मैं धार्मिक कट्टरपंथ से दूर हूँ तो उसकी वजह खुशवंत सिंह हैंI अगर मैंने धर्म और धार्मिक रीति रिवाजों को तर्क की कसौटी पर रखना सीखा है तो उसकी वजह भी खुशवंत सिंह हैं। बंटवारे का दर्द हो या पंजाबी संस्कृति की खूबियां; बुल्लेशाह हो, खुसरों हो या ग़ालिब; इन सबको जानने समझने की शुरुआत खुशवंत सिंह को पढ़ने से ही हुई। मेरे जैसे लाखों होंगे जिनके लिए खुशवंत सिंह एक 'अदृश्य शिक्षक' रहे होंगे। उनको मैं हमेशा हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणीकार के रूप में ही देखता हूँ, महान साहित्यकार या इतिहासकार के रूप में नहीं।

आज जब पत्रकारिता में ईमानदारी और निडरता कम होती जा रही है और ये पता करना भी मुश्किल होता जा रहा है कि कौन सी खबर या स्तम्भ 'पेड' है, ऐसे में खुशवंत सिंह का ना होना दुखद है। कितने लोग हैं जो अपने व्यक्तित्व को सच में एक खुली किताब की तरह रहने देते हैं! इस मायने में खुशवंत सिंह कमाल के थे। दूसरों की टिप्पणियों के हिसाब से उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कभी बदलाव नहीं किये और जैसे थे ईमानदारी से वैसे ही सबके सामने प्रस्तुत होते रहे।  एक बार उनसे मिलने की इच्छा थी पर ये ख़वाहिश अधूरी रह गयी। पर बगैर कभी मिले भी उन्होंने जिस तरह से मुझे 'गाइड' किया है उसका असर ज़िन्दगी भर मेरे अंदर रहेगा। उनको मेरा आख़री सलाम! 

(लेखक एक युवा रंगकर्मी एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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